मानव :
हे सूरज !
तुम छुप गये, १ छोटे से बादल से |
वो हैं १ नन्हा सा बादल, जो बना, थोड़े से जल से ||
वो जल, जो तुमने ही ऊपर उठाया |
वो बादल, जिसने तुमसे ही अस्तित्व पाया ||
सूरज :
बादल के पीछे ही सही, हूँ तो मैं सूरज ही |
सबको पता हैं, मैं कौन हूँ; चाहे जहाँ रहूँ ||
फिर बादल तो मेरे ही जाये हैं, हम सारे हम साये हैं |
सूर्य में तपन और बादल में जल, ये हैं जीवन का संतुलन ||
कहीं गरज, कहीं धीरज; से अमन और चमन हैं |
सूर्य तुम्हे तपाता हैं, जलाता तुम्हारा मन हैं ||
सुदूर क्षितिज से निकलता हूँ, क्षितिज में ही समाता हूँ |
जन्म से मरण तक; अवस्थाएं, प्रतिदिन दिखाता हूँ ||
पर पुनः निकल कर आता हूँ |
जागो, मैं सूरज हूँ |
जागो, तुम सूरज हो ||
मुकेश कुमार भंसाली
मई २०, २०२५
Passionate's
Tuesday, May 20, 2025
------------------------- सूरज -------------------------
Monday, February 19, 2024
हृदयिका
--------------------------- हृदयिका ---------------------------
खगोलिका, समुद्रिका,
समुद्रिका, खगोलिका;
प्यारी पुत्रियां ....
नील गगन और नीला जल, उड़े मछलियाँ ....
हैं सारा जहाँ,
आज, अब, यहाँ;
बहता... आसमां,
ये तेरी माँ...
ना डरना हैं, ना लड़ना हैं
जीते रहना हैं |
जुग जुग जियो, बेटियों
ओ हृदयिका ....
खगोलिका, समुद्रिका। ....
माघ शुक्ला दशमी
विक्रम सम्वत 2080
सोमवार, फरवरी 19, 2024
Tuesday, December 20, 2022
झरना जीवन का
---------- झरना जीवन का ----------
एक किलकारी गूंजी थी, रुदन पर सब हर्षाये थे |
मीठी नींद आती थी, कितने तो हम साये थे ||
एक छोटी सी दुनिया थी, जहाँ मन नहीं; अमन था |
बिना बात के नाचे, गायें; और जुड़ती जाती जनता |
झर-झर, झर-झर, झरता था, जो झरना था जीवन का ||
एक गर्जना उठी गगन में, कितने तो घबराये थे |
गुरूर की दहाड़ पे बस, हम ही तो इतराए थे | |
दुनिया एक छोटी चीज़ थी, बड़ा तो मेरा मन था,
इस दुनिया में ऐसे उलझे, अब मेरा मन ही भवन था |
ऐसे कैसे नाचे, गायें, किया ये हमने कब था,
झरने पे बांध बनाया था बस, और बंधा सारा जीवन था ||
एक चीख भी निकली हैं, हो गये हैं शर्मिंदा |
जीवन कैसे बंध जायेगा, हैं जब तक हम जिंदा ||
दुनिया अब भी सुन्दर हैं, वो मायाजाल था मन का |
नहीं मैं राजा राज-महल का, मैं झोंका बस पवन का |
तोड़ बांध ह्रदय के सारे, बह जाये निर्मल गंगा | |
कल-कल, अविरल बहती जाये, जीवन की सतत धारा |
किलकारी फिर से गूंजी हैं, आया सौभाग्य हमारा ||
२०/१२/२०२२
मुकेश कुमार भंसाली
Wednesday, March 2, 2022
उड़ने दो
--------------- उड़ने दो ----------------
Monday, October 18, 2021
पनाह-गाह के बादशाह
----- पनाह-गाह के बादशाह -----
यहाँ रहते रहते मुझको, यहाँ की आदत हो गई |
इस मिट्टी से, मिट्टी के पुतलों से, कैसे मोहब्बत हो गई ||
मोहब्बत जब भी होती हैं, होती बे-पनाह हैं |
जैसे फलित हुई प्रार्थना, या कोई पाक सना हैं ||
उम्रें कटती मौज़ उड़ाते, मस्ती में झूमें,नाचे, गाते |
हंसी ख़ुशी और गाजे बाजे; जैसे हम भी, कोई शाह-जादे | |
पता हैं, ये कोई घर नहीं, बस एक पनाह-गाह हैं |
पर मुशाफिर ही तो होता, रास्तों का बादशाह हैं ||
इस हवा के महल को भी, एक दिन हवा हो जाना हैं |
दिल्लगियों को, फुलझड़ियों को, एक दिन तो मुरझाना हैं ||
पर दिल, जो मैंने नहीं लगाया; कोई मुझको कैसे सजा दे ?
जो भीतर से मेरे करता हैं, उसी से कह दो हटा दे ||
मुझसे तूने ही करवाया हैं, तो करने वाले भी तुम हो |
तुम ही इसका हल दे दो, अन्यथा मरने वाले भी तुम हो ||
मुशाफिर हूँ, मुशाफिर था; ज़माने में, मैं था की कहाँ,
तुम सबका शुक्रिया, ऐ कारवां ...
मुकेश कुमार भंसाली
१६/१०/२०२१
Wednesday, January 6, 2021
उन्मुक्त गगन
---- उन्मुक्त गगन ----
बच्चे जो अच्छे लगते हैं, चैन से सोते, जगते हैं;
ना दौलत हैं, ना शौहरत हैं, पर खुश करते हैं फ़िज़ाएं |
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें ||
ये सड़क बिछायी; तो तुमने, ये मंज़िल बनायीं; तो तुमने |
सपने दिखाए, भी तुमने, हम देखें, पर तेरी निगाहें |
हम चलते हैं, हम जलते हैं, मंज़िल पाकर भी पिघलते हैं; चुनें क्यूँ ऐसी राहें ?
कुंदन में भी यदि क्रंदन हैं, तो उसे भी हम लौटायें |
अभी सूर्य चमकता हैं, कैसे हम मुरझायें ?
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें | |
ये सागर, और ये किनारा; सूरज, चाँद और तारा; सारा संसार हमारा |
हम बिंदु हैं, तो सिंधु के, बोतल में क्यूँ बंध जायें ?
हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरे में क्योंकर जायें;
बादल हैं, इस नील गगन के, कैसे सूखे रह जायें;
क्यूँ ना आज छा जायें, जीवन रस बरसाएँ ...
मुकेश कुमार भंसाली
६ जनवरी, २०२१
Thursday, August 20, 2020
रुदन
--- रुदन ---
हंसना कितना ही अच्छा हो, हमको रोना ही जमता हैं |
रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |
जन्मों से हम रोये हैं, दुःख के सागर में खोये हैं |
अब तो हंसी खटकती हैं, कुछ अनजानी सी लगती हैं | |
वो ऐसे कैसे हँसता हैं ? पागल जैसा लगता हैं |
रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |
हंस भी लिए अगर दो पल, चलता रहे मन अविरल;
कौन हंसा हमारे संग, किसकी हंसी का क्या हैं ढंग |
वो चुपचाप क्यों बैठा हैं ? शायद हमसे जलता हैं |
रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |
ख़ुशी हम भी चाहते हैं, पर उसपर अधिकार बस मेरा हैं |
ये दुनिया बहुत बुरी हैं, और मेरा रंग सुनहरा हैं | |
ये देव भूमि, यह पुण्य धरा; इतिहास हमारे समक्ष खड़ा |
नर से नारायण हो जाने की, क्षमता हैं और समता हैं | |
रोना हैं, पर रोना भी; धीरे धीरे थमता हैं,
ये समता से थमता हैं, एक दिन निश्चित ही थमता हैं |
रोना हैं, कोई हंसी नहीं हैं, थमते थमते थमता हैं | |
२० अगस्त , २०२०
मुकेश कुमार भंसाली