Tuesday, May 20, 2025

------------------------- सूरज -------------------------

 मानव :

हे सूरज !
तुम छुप गये, १ छोटे से बादल से |
वो हैं १ नन्हा सा बादल, जो बना, थोड़े से जल से ||
 
वो जल, जो तुमने ही ऊपर उठाया |
वो बादल, जिसने तुमसे ही अस्तित्व पाया ||

सूरज :

बादल के पीछे ही सही, हूँ तो मैं सूरज ही |
सबको पता हैं, मैं कौन हूँ; चाहे जहाँ रहूँ ||

फिर बादल तो मेरे ही जाये हैं, हम सारे हम साये हैं |
सूर्य में तपन और बादल में जल, ये हैं जीवन का संतुलन ||  

कहीं गरज, कहीं धीरज; से अमन और चमन हैं |
सूर्य तुम्हे तपाता हैं, जलाता तुम्हारा मन हैं ||

सुदूर क्षितिज से निकलता हूँ, क्षितिज में ही समाता हूँ |
जन्म से मरण तक; अवस्थाएं, प्रतिदिन दिखाता हूँ ||
पर पुनः निकल कर आता हूँ |

जागो, मैं सूरज हूँ |
जागो, तुम सूरज हो ||
                                                                               मुकेश कुमार भंसाली
                                                                                मई २०, २०२५           

Monday, February 19, 2024

हृदयिका

 ---------------------------  हृदयिका ---------------------------

खगोलिका, समुद्रिका,
समुद्रिका, खगोलिका;
प्यारी पुत्रियां ....
नील गगन और नीला जल, उड़े मछलियाँ ....

हैं सारा जहाँ,
आज, अब, यहाँ;
बहता... आसमां,
ये तेरी माँ...

ना डरना हैं, ना लड़ना हैं
जीते रहना हैं |
जुग जुग जियो, बेटियों
ओ हृदयिका ....

खगोलिका, समुद्रिका। ....

मुकेश कुमार भंसाली

माघ शुक्ला दशमी
विक्रम सम्वत 2080
सोमवार, फरवरी 19, 2024

Tuesday, December 20, 2022

झरना जीवन का

 
        ----------  झरना जीवन का ----------

एक किलकारी गूंजी थी, रुदन पर सब हर्षाये थे |
मीठी नींद आती थी, कितने तो हम साये थे ||
एक छोटी सी दुनिया थी, जहाँ मन नहीं; अमन था |
बिना बात के नाचे, गायें; और जुड़ती जाती जनता |
झर-झर, झर-झर, झरता था, जो झरना था जीवन का ||

एक गर्जना उठी गगन में, कितने तो घबराये थे |
गुरूर की दहाड़ पे बस, हम ही तो इतराए थे | |
दुनिया एक छोटी चीज़ थी, बड़ा तो मेरा मन था,
इस दुनिया में ऐसे उलझे, अब मेरा मन ही भवन था |
ऐसे कैसे नाचे, गायें, किया ये हमने कब था,
झरने पे बांध बनाया था बस, और बंधा सारा जीवन था ||

एक चीख भी निकली हैं, हो गये हैं शर्मिंदा |
जीवन कैसे बंध जायेगा, हैं जब तक हम जिंदा ||
दुनिया अब भी सुन्दर हैं, वो मायाजाल था मन का |
नहीं मैं राजा राज-महल का, मैं झोंका बस पवन का |
तोड़ बांध ह्रदय के सारे, बह जाये निर्मल गंगा | |
कल-कल, अविरल बहती जाये, जीवन की सतत धारा |
किलकारी फिर से गूंजी हैं, आया सौभाग्य हमारा ||

                                                                                 २०/१२/२०२२
                                                                                 मुकेश कुमार भंसाली


Wednesday, March 2, 2022

उड़ने दो

 

      --------------- उड़ने दो ----------------

इन हाथों को जो बांधे हैं; हथ-कड़ियाँ, टूट ही जायेगी |
लिपटी हैं, जो पैरों में; ज़ंजीरें छूट ही जायेगी ||
आँखों पर जो बनेगी पट्टी, आँखों को वो न सुहायेगी |
थाम लिया इन साँसों को तो, सांसें ही विदा हो जायेगी ||
हम स्वतंत्र हैं, हम स्वछन्द हैं, बंदिश हमें न भायेगी ||
 
तुम से ही था, तुम से ही हूँ; पर दर्पण हूँ मैं, उस क्षितिज का |
आसमान से जुड़ा हुआ जो, आसमान से मिला कभी ना ||
घोंसले में बड़ा हुआ, पर अब मेरे भी पर हैं |
मुझे बादल बुलाते हैं, और अब वही मेरा घर हैं ||
 
मुकेश कुमार भंसाली
०१ मार्च, 2022

Monday, October 18, 2021

पनाह-गाह के बादशाह

               -----  पनाह-गाह के बादशाह -----

यहाँ रहते रहते मुझको, यहाँ की आदत हो गई |
इस मिट्टी से, मिट्टी के पुतलों से, कैसे मोहब्बत हो गई ||

मोहब्बत जब भी होती हैं, होती बे-पनाह हैं |
जैसे फलित हुई प्रार्थना, या कोई पाक सना हैं ||

उम्रें कटती मौज़ उड़ाते, मस्ती में झूमें,नाचे, गाते |
हंसी ख़ुशी और गाजे बाजे; जैसे हम भी, कोई शाह-जादे | |

पता हैं, ये कोई घर नहीं, बस एक पनाह-गाह हैं |
पर मुशाफिर ही तो होता, रास्तों का बादशाह हैं ||

इस हवा के महल को भी, एक दिन हवा हो जाना हैं |
दिल्लगियों को, फुलझड़ियों को, एक दिन तो मुरझाना हैं ||

पर दिल, जो मैंने नहीं लगाया; कोई मुझको कैसे सजा दे ?
जो भीतर से मेरे करता हैं, उसी से कह दो हटा दे ||

मुझसे तूने ही करवाया हैं, तो करने वाले भी तुम हो |
तुम ही इसका हल दे दो, अन्यथा मरने वाले भी तुम हो ||

मुशाफिर हूँ, मुशाफिर था; ज़माने में, मैं था की कहाँ,
तुम सबका शुक्रिया, ऐ कारवां ...

                                                               मुकेश कुमार भंसाली
                                                               १६/१०/२०२१

Wednesday, January 6, 2021

उन्मुक्त गगन

                ---- उन्मुक्त गगन ----


बच्चे जो अच्छे लगते हैं, चैन से सोते, जगते हैं;

ना दौलत हैं, ना शौहरत हैं, पर खुश करते हैं फ़िज़ाएं | 

ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें  || 


ये सड़क बिछायी; तो तुमने, ये मंज़िल बनायीं; तो तुमने | 

सपने दिखाए, भी तुमने, हम देखें, पर तेरी निगाहें | 

हम चलते हैं, हम जलते हैं, मंज़िल पाकर भी पिघलते हैं; चुनें क्यूँ ऐसी राहें ?

कुंदन में भी यदि क्रंदन हैं, तो उसे भी हम लौटायें |

अभी सूर्य चमकता हैं, कैसे हम मुरझायें ?

ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ  ना जीना चाहें | | 


ये सागर, और ये किनारा; सूरज, चाँद और तारा; सारा संसार हमारा | 

हम बिंदु हैं, तो सिंधु के, बोतल में क्यूँ बंध जायें ?

हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरे में क्योंकर जायें;

बादल हैं, इस नील गगन के, कैसे सूखे रह जायें;

क्यूँ ना आज छा जायें, जीवन रस बरसाएँ ... 


मुकेश कुमार भंसाली 

६ जनवरी, २०२१ 

Thursday, August 20, 2020

रुदन

                                --- रुदन ---


हंसना कितना ही अच्छा हो, हमको रोना ही जमता हैं |

रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |


जन्मों से हम रोये हैं, दुःख के सागर में खोये हैं |

अब तो हंसी खटकती हैं, कुछ अनजानी सी लगती हैं | |

वो ऐसे कैसे हँसता हैं ? पागल जैसा लगता हैं |

रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |


हंस भी लिए अगर दो पल, चलता रहे मन अविरल;

कौन हंसा हमारे संग, किसकी हंसी का क्या हैं ढंग |

वो चुपचाप क्यों बैठा हैं ? शायद हमसे जलता हैं |

रोना हैं, कोई हंसी नहीं, थमते थमते थमता हैं | |


ख़ुशी हम भी चाहते हैं, पर उसपर अधिकार बस मेरा हैं |

ये दुनिया बहुत बुरी हैं, और मेरा रंग सुनहरा हैं | |

ये देव भूमि, यह पुण्य धरा; इतिहास हमारे समक्ष खड़ा |

नर से नारायण हो जाने की, क्षमता हैं और समता हैं | |


रोना हैं, पर रोना भी; धीरे धीरे थमता हैं,

ये समता से थमता हैं, एक दिन निश्चित ही थमता हैं |

रोना हैं, कोई हंसी नहीं हैं, थमते थमते थमता हैं | |


                                                                                    २० अगस्त , २०२०

                                                                                    मुकेश कुमार भंसाली