---- उन्मुक्त गगन ----
बच्चे जो अच्छे लगते हैं, चैन से सोते, जगते हैं;
ना दौलत हैं, ना शौहरत हैं, पर खुश करते हैं फ़िज़ाएं |
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें ||
ये सड़क बिछायी; तो तुमने, ये मंज़िल बनायीं; तो तुमने |
सपने दिखाए, भी तुमने, हम देखें, पर तेरी निगाहें |
हम चलते हैं, हम जलते हैं, मंज़िल पाकर भी पिघलते हैं; चुनें क्यूँ ऐसी राहें ?
कुंदन में भी यदि क्रंदन हैं, तो उसे भी हम लौटायें |
अभी सूर्य चमकता हैं, कैसे हम मुरझायें ?
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें | |
ये सागर, और ये किनारा; सूरज, चाँद और तारा; सारा संसार हमारा |
हम बिंदु हैं, तो सिंधु के, बोतल में क्यूँ बंध जायें ?
हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरे में क्योंकर जायें;
बादल हैं, इस नील गगन के, कैसे सूखे रह जायें;
क्यूँ ना आज छा जायें, जीवन रस बरसाएँ ...
मुकेश कुमार भंसाली
६ जनवरी, २०२१
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