Monday, October 18, 2021

पनाह-गाह के बादशाह

               -----  पनाह-गाह के बादशाह -----

यहाँ रहते रहते मुझको, यहाँ की आदत हो गई |
इस मिट्टी से, मिट्टी के पुतलों से, कैसे मोहब्बत हो गई ||

मोहब्बत जब भी होती हैं, होती बे-पनाह हैं |
जैसे फलित हुई प्रार्थना, या कोई पाक सना हैं ||

उम्रें कटती मौज़ उड़ाते, मस्ती में झूमें,नाचे, गाते |
हंसी ख़ुशी और गाजे बाजे; जैसे हम भी, कोई शाह-जादे | |

पता हैं, ये कोई घर नहीं, बस एक पनाह-गाह हैं |
पर मुशाफिर ही तो होता, रास्तों का बादशाह हैं ||

इस हवा के महल को भी, एक दिन हवा हो जाना हैं |
दिल्लगियों को, फुलझड़ियों को, एक दिन तो मुरझाना हैं ||

पर दिल, जो मैंने नहीं लगाया; कोई मुझको कैसे सजा दे ?
जो भीतर से मेरे करता हैं, उसी से कह दो हटा दे ||

मुझसे तूने ही करवाया हैं, तो करने वाले भी तुम हो |
तुम ही इसका हल दे दो, अन्यथा मरने वाले भी तुम हो ||

मुशाफिर हूँ, मुशाफिर था; ज़माने में, मैं था की कहाँ,
तुम सबका शुक्रिया, ऐ कारवां ...

                                                               मुकेश कुमार भंसाली
                                                               १६/१०/२०२१

Wednesday, January 6, 2021

उन्मुक्त गगन

                ---- उन्मुक्त गगन ----


बच्चे जो अच्छे लगते हैं, चैन से सोते, जगते हैं;

ना दौलत हैं, ना शौहरत हैं, पर खुश करते हैं फ़िज़ाएं | 

ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें  || 


ये सड़क बिछायी; तो तुमने, ये मंज़िल बनायीं; तो तुमने | 

सपने दिखाए, भी तुमने, हम देखें, पर तेरी निगाहें | 

हम चलते हैं, हम जलते हैं, मंज़िल पाकर भी पिघलते हैं; चुनें क्यूँ ऐसी राहें ?

कुंदन में भी यदि क्रंदन हैं, तो उसे भी हम लौटायें |

अभी सूर्य चमकता हैं, कैसे हम मुरझायें ?

ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ  ना जीना चाहें | | 


ये सागर, और ये किनारा; सूरज, चाँद और तारा; सारा संसार हमारा | 

हम बिंदु हैं, तो सिंधु के, बोतल में क्यूँ बंध जायें ?

हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरे में क्योंकर जायें;

बादल हैं, इस नील गगन के, कैसे सूखे रह जायें;

क्यूँ ना आज छा जायें, जीवन रस बरसाएँ ... 


मुकेश कुमार भंसाली 

६ जनवरी, २०२१