----- पनाह-गाह के बादशाह -----
यहाँ रहते रहते मुझको, यहाँ की आदत हो गई |
इस मिट्टी से, मिट्टी के पुतलों से, कैसे मोहब्बत हो गई ||
मोहब्बत जब भी होती हैं, होती बे-पनाह हैं |
जैसे फलित हुई प्रार्थना, या कोई पाक सना हैं ||
उम्रें कटती मौज़ उड़ाते, मस्ती में झूमें,नाचे, गाते |
हंसी ख़ुशी और गाजे बाजे; जैसे हम भी, कोई शाह-जादे | |
पता हैं, ये कोई घर नहीं, बस एक पनाह-गाह हैं |
पर मुशाफिर ही तो होता, रास्तों का बादशाह हैं ||
इस हवा के महल को भी, एक दिन हवा हो जाना हैं |
दिल्लगियों को, फुलझड़ियों को, एक दिन तो मुरझाना हैं ||
पर दिल, जो मैंने नहीं लगाया; कोई मुझको कैसे सजा दे ?
जो भीतर से मेरे करता हैं, उसी से कह दो हटा दे ||
मुझसे तूने ही करवाया हैं, तो करने वाले भी तुम हो |
तुम ही इसका हल दे दो, अन्यथा मरने वाले भी तुम हो ||
मुशाफिर हूँ, मुशाफिर था; ज़माने में, मैं था की कहाँ,
तुम सबका शुक्रिया, ऐ कारवां ...
मुकेश कुमार भंसाली
१६/१०/२०२१
Monday, October 18, 2021
पनाह-गाह के बादशाह
Wednesday, January 6, 2021
उन्मुक्त गगन
---- उन्मुक्त गगन ----
बच्चे जो अच्छे लगते हैं, चैन से सोते, जगते हैं;
ना दौलत हैं, ना शौहरत हैं, पर खुश करते हैं फ़िज़ाएं |
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें ||
ये सड़क बिछायी; तो तुमने, ये मंज़िल बनायीं; तो तुमने |
सपने दिखाए, भी तुमने, हम देखें, पर तेरी निगाहें |
हम चलते हैं, हम जलते हैं, मंज़िल पाकर भी पिघलते हैं; चुनें क्यूँ ऐसी राहें ?
कुंदन में भी यदि क्रंदन हैं, तो उसे भी हम लौटायें |
अभी सूर्य चमकता हैं, कैसे हम मुरझायें ?
ज़िन्दगी खड़ी हैं फैलाकर बाहें, क्यूँ ना जीना चाहें | |
ये सागर, और ये किनारा; सूरज, चाँद और तारा; सारा संसार हमारा |
हम बिंदु हैं, तो सिंधु के, बोतल में क्यूँ बंध जायें ?
हम पंछी उन्मुक्त गगन के, पिंजरे में क्योंकर जायें;
बादल हैं, इस नील गगन के, कैसे सूखे रह जायें;
क्यूँ ना आज छा जायें, जीवन रस बरसाएँ ...
मुकेश कुमार भंसाली
६ जनवरी, २०२१