सिला
दिन, रात, छुट्टी, दिवाली, वही अपना शिव था, वही अपना अली |
एक ख्वाब, एक ख्वाहिश, सीने में पलती थी; एक साजिश, एक रंजिश, साथ में चलती थी |
एक दिन पीछे से वार हुआ, धुंधला ये संसार हुआ, पानी आँखों की तरफ चला, पर हलक ने वो घूँट पिया ||
ये सिला था मेरी वफ़ा का, उस बे-वफ़ा से; अब आँखों में चुभने लगे थे, तौहीन के तमाशे |
मैं सदस्य हूँ, इस परिवार का; मुझे ऐसा लगता था; पर वो कमबख्त मुझे मजदूर समझाता था ||
ना मैं मजदूर हूँ, ना मजबूर हूँ; ये सिले हैं तुम्हारे कि अब इतना दूर हूँ |
घर छोड़ के आये थे, अब एक और घर छोड़ते हैं; वापस कभी ना आयेंगे, सारे रिश्ते तोड़ते हैं ||
अलविदा
मुकेश कुमार भंसाली
१ अक्टूबर, २०१२

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