मानव :
हे सूरज !
तुम छुप गये, १ छोटे से बादल से |
वो हैं १ नन्हा सा बादल, जो बना, थोड़े से जल से ||
वो जल, जो तुमने ही ऊपर उठाया |
वो बादल, जिसने तुमसे ही अस्तित्व पाया ||
सूरज :
बादल के पीछे ही सही, हूँ तो मैं सूरज ही |
सबको पता हैं, मैं कौन हूँ; चाहे जहाँ रहूँ ||
फिर बादल तो मेरे ही जाये हैं, हम सारे हम साये हैं |
सूर्य में तपन और बादल में जल, ये हैं जीवन का संतुलन ||
कहीं गरज, कहीं धीरज; से अमन और चमन हैं |
सूर्य तुम्हे तपाता हैं, जलाता तुम्हारा मन हैं ||
सुदूर क्षितिज से निकलता हूँ, क्षितिज में ही समाता हूँ |
जन्म से मरण तक; अवस्थाएं, प्रतिदिन दिखाता हूँ ||
पर पुनः निकल कर आता हूँ |
जागो, मैं सूरज हूँ |
जागो, तुम सूरज हो ||
मुकेश कुमार भंसाली
मई २०, २०२५
Tuesday, May 20, 2025
------------------------- सूरज -------------------------
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