----- पनाह-गाह के बादशाह -----
यहाँ रहते रहते मुझको, यहाँ की आदत हो गई |
इस मिट्टी से, मिट्टी के पुतलों से, कैसे मोहब्बत हो गई ||
मोहब्बत जब भी होती हैं, होती बे-पनाह हैं |
जैसे फलित हुई प्रार्थना, या कोई पाक सना हैं ||
उम्रें कटती मौज़ उड़ाते, मस्ती में झूमें,नाचे, गाते |
हंसी ख़ुशी और गाजे बाजे; जैसे हम भी, कोई शाह-जादे | |
पता हैं, ये कोई घर नहीं, बस एक पनाह-गाह हैं |
पर मुशाफिर ही तो होता, रास्तों का बादशाह हैं ||
इस हवा के महल को भी, एक दिन हवा हो जाना हैं |
दिल्लगियों को, फुलझड़ियों को, एक दिन तो मुरझाना हैं ||
पर दिल, जो मैंने नहीं लगाया; कोई मुझको कैसे सजा दे ?
जो भीतर से मेरे करता हैं, उसी से कह दो हटा दे ||
मुझसे तूने ही करवाया हैं, तो करने वाले भी तुम हो |
तुम ही इसका हल दे दो, अन्यथा मरने वाले भी तुम हो ||
मुशाफिर हूँ, मुशाफिर था; ज़माने में, मैं था की कहाँ,
तुम सबका शुक्रिया, ऐ कारवां ...
मुकेश कुमार भंसाली
१६/१०/२०२१
Monday, October 18, 2021
पनाह-गाह के बादशाह
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