Saturday, April 5, 2014

                   आवारा आशियाना

अब जो मेरा आज हैं, कल गुजरी दास्तान होगा ।
जहाँ आज गुलिस्तान हैं, कल नखलिस्तान होगा ॥

कांटे पड़े हैं राहों में, तो गुल भी कहीं खिले ही हैं ।
दिल तो आखिर दिल हैं, वो भी कहीं मिले ही हैं ॥

सफ़र में हमसफ़र मिले और हमसफ़र भी हवा हुये ।
इन अंतहीन रास्तों पे, कभी वो दिल कि दवा हुये ॥

मैं घोंसले से उड़ चला, अब आसमां ही आशियाना ।
हवा के संग बहता रहूँ और बादलों में शामियाना ॥

कभी यहाँ हूँ, कभी वहाँ हूँ, मैं ना जानूं कि मैं कहाँ हूँ ।
कुछ धुँधली आखें ढूंढती मुझको और पूछे "क्यूँ दूर रहा तू ?" ॥

उड़ते हैं ऊपर जाने को और एक दिन ऊपर ही जायेंगे ।
पर खुद को भूल गए तो फिर, कैसे खुदा को पायेंगे.............

                                                                               मुकेश कुमार भंसाली
                                                                               मार्च २९, २०१४